Rani Lakshmibai Birth Anniversary: “नहीं, मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी। जब तक रक्त की एक बूंद भी शेष है, तब तक लड़ूंगी। झांसी स्वाधीन रहेगी।” ये शब्द उस वीरांगना के हैं जिसने अपने साहस और बलिदान से भारत के स्वतंत्रता संग्राम को अमर कर दिया। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जीवन शौर्य, निष्ठा और देशभक्ति का आदर्श उदाहरण है।
बचपन से वीरता की ओर
19 नवंबर 1829 को वाराणसी में जन्मीं मणिकर्णिका को बचपन में प्यार से मनु और छबीली कहा जाता था। वे कुशल योद्धा और विदुषी थीं। 1842 में झांसी के राजा गंगाधर राव ने उनसे विवाह किया और उन्हें लक्ष्मीबाई नाम मिला। 1853 में राजा गंगाधर राव की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने झांसी पर कब्जा करने की कोशिश की। दत्तक पुत्र दामोदर राव के अधिकार को ठुकराकर अंग्रेजों ने “डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स” लागू कर दिया।
महिलाओं को भी दी सेना में जगह
रानी ने हार मानने के बजाय झांसी की स्वतंत्रता के लिए कमर कस ली। उन्होंने सैन्य शक्ति को बढ़ाया और महिलाओं को भी अपनी सेना में शामिल किया। 1857 की क्रांति के दौरान झांसी विद्रोह का केंद्र बन गया। चार जून को जब कानपुर में क्रांति का बिगुल बजा, तो झांसी भी उस आग में कूद पड़ी। रानी ने न केवल अंग्रेजी सेना का डटकर मुकाबला किया, बल्कि झांसी की सत्ता अपने हाथ में लेकर शासन किया।
रणनीति और बलिदान
रानी ने अंग्रेजों को रसद मिलने से रोकने के लिए झांसी के आसपास के क्षेत्र को वीरान कर दिया। उन्होंने हर मोर्चे पर अद्भुत साहस दिखाया। वीर सावरकर ने अपने ग्रंथ में उल्लेख किया है कि रानी की सेना की रणनीति ने अंग्रेजों को चकमा दिया। हालांकि, आधुनिक हथियारों और रणनीतियों के चलते अंग्रेज धीरे-धीरे झांसी के करीब पहुंच गए। जब तात्या टोपे की सहायता की उम्मीद धूमिल हो गई, तब भी रानी ने हार नहीं मानी। 3 अप्रैल 1858 को अंग्रेजों ने झांसी पर कब्जा कर लिया, लेकिन रानी ने लड़ाई जारी रखी।
कालपी और ग्वालियर में संघर्ष
झांसी से निकलने के बाद रानी कालपी पहुंचीं, जहां उन्होंने तात्या टोपे के साथ मिलकर ग्वालियर पर कब्जा कर लिया। यह उनकी आखिरी बड़ी जीत थी। लेकिन अंग्रेजों ने संगठित हमला कर विद्रोही सेना को हराने की तैयारी की। कोटा की सराय के पास रानी ने अंतिम मोर्चा संभाला।
लड़ते-लड़ते वीरगति
18 जून 1858 को ग्वालियर के पास अंग्रेजों ने रानी पर घातक हमला किया। नए घोड़े के कारण वे नाले को पार नहीं कर सकीं और अंग्रेजों ने उन्हें घेर लिया। वीरता से लड़ते हुए रानी ने कई अंग्रेज सैनिकों को परास्त किया, लेकिन एक घातक प्रहार से घायल होकर उन्होंने अंतिम सांसें लीं। उनके विश्वासपात्र सरदार ने उन्हें अंग्रेजों के हाथों से बचाने के लिए वहीं उनका अंतिम संस्कार किया।
अमर बलिदान
रानी लक्ष्मीबाई का जीवन न केवल भारत के स्वतंत्रता संग्राम का प्रेरणास्रोत है, बल्कि महिलाओं के अधिकार और साहस का प्रतीक भी है। उनका नाम इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है। “मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी” का उद्घोष भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की गूंज बन गया, जो आज भी हर भारतीय के दिल में जिंदा है।

























