बालीवुड न्यूज. फिल्म ‘हक’ की कहानी शाजिया बानो नाम की महिला के इर्द-गिर्द घूमती है। उसकी जिंदगी सामान्य है, पति, बच्चे और घर सब कुछ ठीक चलता दिखता है। लेकिन पति की दूसरी शादी उसकी दुनिया हिला देती है। बच्चों की जिम्मेदारी और खर्च उठाना उसके लिए चुनौती बन जाता है। जब पति साथ छोड़ देता है, तो वह अदालत पहुंचती है। यही कदम समाज में हलचल मचा देता है। एक साधारण घरेलू मसला धीरे-धीरे बड़ा सामाजिक सवाल बन जाता है।
शाह बानो केस की झलक क्यों?
फिल्म की कहानी जिग्ना वोरा की किताब ‘बानो भारत की बेटी’ से प्रेरित है। यह वही कहानी की ओर इशारा करती है, जिसने देश में धर्म और कानून को लेकर जिस बहस को जन्म दिया था। फिल्म सवाल पूछती है कि क्या आज भी औरत को अपने हक के लिए आवाज उठानी पड़ती है। क्या समाज उसके हक को आसानी से स्वीकार करता है। फिल्म बहुत सरल तरीके से यह संघर्ष दिखाती है। इस संघर्ष में दर्द भी है और हिम्मत भी। यह बात फिल्म को और गहरा बनाती है।
यामी गौतम ने क्या नया दिखाया?
यामी गौतम ने शाजिया का किरदार बहुत सच्चाई से निभाया है। उनके चेहरे पर दर्द, डर और साहस साफ नजर आता है। उन्होंने दिखाया कि टूटकर भी कोई मजबूती से खड़ा रह सकता है। वह चुप रहने वाली औरत नहीं, बल्कि सवाल पूछने वाली औरत बनकर सामने आती है। यामी के संवाद सीधे दिल पर असर छोड़ते हैं। उनका अभिनय फिल्म की आत्मा जैसा लगता है। यह किरदार शायद लंबे समय तक याद रहे।
इमरान हाशमी का किरदार कैसा है?
इमरान हाशमी ने अब्बास खान का किरदार निभाया है। वह शाजिया का पति है, लेकिन उसके फैसले कहानी का मोड़ बदल देते हैं। इमरान ने न तो किरदार को पूरी तरह नकारात्मक बनाया और न ही नायक जैसा। उन्होंने एक ऐसे आदमी को दिखाया जो समाज और परंपरा के नाम पर फैसले लेता है। उनका अभिनय संतुलित और प्रभावी है। उन्होंने किरदार को वास्तविक बनाने में सफलता पाई है। उनकी मौजूदगी कहानी को और गहरा करती है।
समाज किस तरफ खड़ा है?
फिल्म दिखाती है कि समाज अक्सर औरत से सहनशीलता की उम्मीद करता है। लेकिन जब औरत अपने हक की मांग करती है, तब विरोध भी शुरू हो जाता है। अदालत, धर्म और समाज तीनों के बीच संघर्ष खड़ा होता है। फिल्म यह सवाल उठाती है कि क्या औरत की आवाज को आज भी दबाया जा रहा है। फिल्म इस लड़ाई को भावनात्मक और सरल अंदाज़ में बताती है। देखने वाला आसानी से कहानी से जुड़ जाता है। यह कहानी सोचने पर मजबूर करती है।
सुपर्ण वर्मा का निर्देशन कैसा रहा?
सुपर्ण वर्मा ने कहानी को बिना भारी संवादों और ओवरड्रामा के दिखाया है। उन्होंने हर दृश्य को सादगी में रखकर असर पैदा किया है। फिल्म में 1980 के दशक की झलक लोकेशन और सेट में दिखाई देती है। सिनेमैटोग्राफी साधी पर प्रभावशाली है। पहला हिस्सा थोड़ा धीमा लगता है। लेकिन दूसरे हिस्से में कहानी पकड़ बनाती है। निर्देशन कहानी को मजबूत बनाए रखता है।
क्या फिल्म सभी को पसंद आएगी?
यह फिल्म मनोरंजन के लिए नहीं, सोचने के लिए बनाई गई है। तेज़ मसाला या चमक-दमक की उम्मीद वाले दर्शक शायद इसे कम पसंद करें। लेकिन जो लोग समाज, अधिकार और इंसाफ को समझना चाहते हैं, उनके लिए यह जरूरी फिल्म है। फिल्म का संदेश साफ है—औरत की आवाज़ को अनसुना नहीं किया जा सकता। यह फिल्म एक सवाल छोड़ती है, जवाब दर्शक के पास है। यह कहानी लंबे समय तक दिमाग में रहती है।

























